श्रीमद्भगवद् गीता | कर्म अकर्म और विकर्म | Meaning of karma

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कर्म अकर्म और विकर्म - Meaning of karma

कर्म अकर्म और विकर्म : कर्म तीन प्रकार के होते है | कर्म का तत्त्व भी जानना चाहिये और अकर्म का तत्त्व भी जानना चाहिये तथा विकर्म का तत्त्व भी जानना चाहिये क्योंकि कर्म की गति गहन है। अत: मनुष्य को चाहिए कि वह यह ठीक से जाने कि कर्म क्या है, विकर्म क्या है और अकर्म क्या है।

विषय :कर्म अकर्म और विकर्म
शैली :आध्यात्मिक कहानी
सूत्र :पुराण
मूल भाषा :हिंदी

कर्म अकर्म और विकर्म – Meaning of karma

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मण:।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति:॥ 17॥

तातपर्य – यदि कोई सचमुच ही भव-बंधन से मुक्ति चाहता है तो उसे कर्म, अकर्म तथा विकर्म के अंतर को समझना होगा। कर्म, अकर्म तथा विकर्म के विश्लेषण की आवश्यकता है क्योंकि यह अत्यंत गहन विषय है। कृष्णभावनामृत तथा गुणों के अनुसार कर्म को समझने के लिए परमेश्वर के साथ अपने संबंध को जानना होगा।

मन , वचन और स्थूल शरीर से किए गए कार्य को हम कर्म कहते है ।सकामभाव से की गई शास्त्रविहित क्रिया ‘कर्म’ बन जाती है। फलेचछा, ममता और आसक्ति से रहित होकर केवल दूसरों के हित के लिये किया गया कर्म ‘अकर्म’ बन जाता है। विहित कर्म भी यदि दूसरे का हित करने अथवा उसे दुःख पहुँचाने के भाव से किया गया हो तो वह भी ‘विकर्म’ बन जाता है।

कर्म के 3 प्रकार कहे गए है.

  1. कर्म : अच्छे कर्म
  2. विकर्म : बुरे कर्म
  3. अकर्म : नि:स्वार्थ कर्म

कोई भी मनुष्य किसी भी क्षण कर्म किये बिना रह ही नहीं सकता सभी प्राणी प्रकृति से जुड़े हे । सांस लेना सांस छोड़ना, चलना फिरना, सुनना देखना, उठना बैठना सभी स्वाभाविक रुप से होने वाले कर्म हैं । कोई भी मनुष्य या प्राणी स्वाभाविक कर्मों का त्याग नहीं कर सकता है। ये सनातन सत्य है की कर्म रहित होना अशंभव है शरीर संचालन भी बिना कर्म के नहीं हो सकता है।

कर्म क्या है?

ईश्वर ने प्राणी (जिव) के कर्म अनुसार सृष्टि की रचना की हे उसका नाम कर्म है अर्थात जैसा कर्म वैसा फल.
अतः शास्त्र के कथन अथवा श्रेष्ठ पुरुषों के कथन अनुसार कर्म करना श्रेष्ठ है. कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है. शुभ कर्म करेंगे तो कर्म फल भी शुभ होगा.

विकर्म

निषिद्ध(विनाशकारी) कर्म ही विकर्म है। स्वभाव के विपरीत कर्म भी, विकर्म ही हैं। मन-वचन और स्थूल शरीर से किए गए हिंसात्मक कार्य जैसे चोरी ,झूठ, लोगो को ठगना , पाखंड, बुरी नीयत से किए गए कार्य को विकर्म कहते है । जिन कर्मों से मनुष्य अपने मनुष्यत्व से नीचे गिर जाता है उन कर्मों को यहाँ विकर्म कहा है जिन्हें शास्त्रों ने निषिद्ध कर्म का नाम दिया है।

विकर्म नीचता में ले जाते उदाहरण के लिए जब आपने ज़हरीला बीज बोया और अब उससे जो पेड़ तैयार होगा उसमें फल भी निकलेगा | लेकिन हर फल ज़हरीला होगा और उसे खाने वालों में ज़हर फैलेगा. यह कर्म विकर्म हे 

अकर्म

आसक्तिरहित भगवदर्पण बुद्धि से अपना कर्तव्य समझ कर जो कर्म किया जाता है, कर्तापन के अभिमान से रहित होकर जो कर्म किया जाता है वह अकर्म हो जाता है

“यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्, यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् | 

उदाहरण के लिए आप(स्वयं) ने अगर पेड़ लगाया, जो फल उपजे वे आपने खाए और साथ में अन्य लोगों ने भी खाए. आपके न रहने के बाद भी वह पेड़ सालोंसाल फल देता रहा और उससे कई जीवों का पेट भरा | जब आप उस फल को खाएं और उसके बीज या गुठली को फिर से बो दें, यह सुकर्म हे 

निष्काम कर्म – कर्म अकर्म और विकर्म

जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है, अकर्म में कर्म देखता है अर्थात समस्त कर्म करता हुआ साक्षी भाव से तटस्थ रहता है, कर्म तथा उनके फलों में आसक्त नहीं होता है, त्यागते हुए भोगता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है और समस्त कर्मों को करने वाला अकर्ता पुरुष है।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भू मासङ्गोSस्त्वकर्मणि।।

अर्थात्, “तुम्हारा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में नहीं है, तुम कर्मफले के कारण भी मत बनो तथा कर्मों को न करने (की भावना के साथ) साथ भी मत हो ”।

मैं ख़ुद ही अपने कर्मो का ज़िम्मेदार हूं. इसलिए जो भी फल मिलेगा उसका ज़िम्मेदार मैं स्वयं हूं.
लेकिन इतना अवश्य याद रहे कि परमात्मा का दिखाया रास्ता और मार्गदर्शन मेरे लिए सही निर्णय लेने में मदद करता है. मुझे सही दिशा देता है.

एक बार निर्णय लेने के बाद उस कर्म के अच्छे और बुरे फल की ज़िम्मेदारी स़िर्फ और स़िर्फ मेरी होती है | यह सुनिश्चित करले कि हमारे हर कर्म का हिसाब आसमान में बैठा कोई धर्मराज नहीं करता बल्कि हमारे अपने ही कर्म हे . मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है

हमे इतना अवश्य याद रखना चाहिए कि कोई भी कर्म करने से पहले अपने अंदर जांचें कि यह कर्म मुझे किस ओर लेकर जाएगा. अपनी अंतरात्मा की ही आपका सही मार्गदर्शन करेगी.

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥ ४/१४

तातपर्य ‘‘न मुझे कर्म लिप्त करते हैं, न ही मुझे कर्मफल की लालसा है। जो मुझे इस प्रकार तत्त्व से जान लेता है, वह कर्मों के बंधन को प्राप्त नहीं होता।’’

कर्म अकर्म और विकर्म क्या हैं? 

कर्म यानि : कर्ता भाव से किया गया कोई भी काम ।
अकर्म यानि : कर्ता भाव केे बीना किया गया कोई भी काम ।
सत्तकर्म यानि : कर्ता भाव केे बीना किया गया कोई भी अच्छा काम ।
विकर्म यानि : कर्ता भाव केे साथ या बीना किया गया कोई भी बुरा काम

अंतिम बात :

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