श्रीमद् भागवत पुराण : कर्मों की गति और प्रारब्ध कर्म क्या हे इसे समझने के लिए हम एक द्रश्टांत देखते हे जैसे श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण की कथा के अनुसार एक बार राजा परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने सत्यवती पुत्र महर्षि व्यासजी से कुछ प्रश्न किये जैसे की. . . .
कहानी : | श्रीमद् भागवत पुराण कथा |
शैली : | आध्यात्मिक कहानी |
सूत्र : | पुराण |
मूल भाषा : | हिंदी |
Table of Contents
श्रीमद् भागवत पुराण कथा : कर्मों की गति – Shrimad Bhagwat Mahapuran
वसुदेव तथा देवकी ने ऐसे कौन-से कर्म पूर्वजन्म में किए थे, जिससे उनके यहां परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ?
- धर्मपरायण वसुदेव जिनके पुत्र के रूप में साक्षात् भगवान विष्णु अवतरित हुए, वे कंस के कारागार में क्यों बन्द हुए, उन्होंने अपनी पत्नी देवकी के साथ ऐसा क्या अपराध किया था, जिससे कंस के द्वारा देवकी के छ: पुत्रों का वध कर दिया गया?
- जगत की सृष्टि करने में समर्थ उन भगवान श्रीकृष्ण ने माता देवकी के गर्भ में रहते हुए ही अपने माता-पिता को बंधन से मुक्त क्यों नहीं कर दिया?
- वे छ: पुत्र कौन थे? वह कन्या कौन थी, जिसे कंस ने पत्थर पर पटक दिया था और वह हाथ से छूटकर आकाश में चली गयी और पुन: अष्टभुजा के रूप में प्रकट हुई?
जनमेजय ने कहा–हे दयानिधे ! हे सर्वज्ञ ! मेरा मन इन संदेहों से व्याकुल हो रहा है, इसलिए मेरे इन संदेहों को दूर करे और मेरे मन को शान्त कीजिए।
कर्मों की गहन गति श्रीमद् भागवत पुराण – कर्म की प्रधानता
व्यासजी ने जनमेजय से कहा–इस विषय में क्या कहा जाय। कर्मों की गति बड़ी गहन होती है। कर्म की गति जानने में देवता भी समर्थ नहीं हैं, मानव की तो बात ही क्या?
जब से इस त्रिगुणात्मक ब्रह्माण्ड का आविर्भाव हुआ, उसी समय से कर्म के द्वारा सभी की उत्पत्ति होती आ रही है। समस्त जीव कर्म रूपी बीज से उत्पन्न होते हैं। तत्त्वों के ज्ञाता विद्वानों ने तीन प्रकार के कर्म बताए हैं
- संचित कर्म
- प्रारब्ध कर्म
- वर्तमान कर्म
कर्मों का ये त्रैविध्य इस शरीर में अवश्य विद्यमान रहता है। काल के पाश में बंधे हुए समस्त जीवों को अपने द्वारा किये गये शुभ अथवा अशुभ कर्मों का फल निश्चित रूप से भोगना ही पड़ता है। प्रत्येक जीव का प्रारब्ध निश्चित रूप से विधि के द्वारा ही निर्मित है।सृष्टि के समय ब्रह्मा आदि सभी देवताओं की उत्पत्ति होती है और कल्प के अंत में क्रमश: उनका नाश भी हो जाता है। जिसके नाश में जो निमित्त बन चुका है, उसी के द्वारा उसकी मृत्यु होती है।
विधाता ने जो रच दिया है, वह अवश्य होता है; इसके विपरीत कुछ नहीं होता। जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, रोग, दु:ख अथवा सुख–जो सुनिश्चित है, वह उसी रूप में अवश्य प्राप्त होता है; इसके विपरीत दूसरा सिद्धान्त है ही नहीं।
जन्ममृत्युजराव्याधिदु:खं वा सुखमेव वा।
तत्तथैव भवेत्कामं नान्यथेह विनिर्णय:।। (श्रीमद्देवीभागवत ४।२०।३०)
राग, द्वेष आदि भाव स्वर्ग में भी होते हैं और इस प्रकार ये भाव देवताओं, मनुष्यों तथा पशु-पक्षियों में भी विद्यमान रहते हैं। पूर्वजन्म में किये हुए वैर तथा स्नेह के कारण ये समस्त विकार शरीर के साथ सदा संलग्न रहते हैं। आदि-अंतरहित यह कर्म ही जगत का कारण है।
भगवान विष्णु भी अपनी इच्छा से जन्म लेने के लिए स्वतन्त्र होते तो वे अनेक प्रकार के सुखों व वैकुण्ठपुरी का निवास छोड़कर निम्न योनियों (मत्स्य, कूर्म, वराह, वामन) में जन्म क्यों लेते? ब्रह्मा आदि सभी देवता भी कर्म के वश में हैं और अपने किए कर्मों के फलस्वरूप सुख-दु:ख प्राप्त करते हैं।
भगवान विष्णु को रामावतार ग्रहण करके वनवास का दारुण कष्ट, सीता-हरण का महान दु:ख, रावण से युद्ध व पत्नी-परित्याग की असीम वेदना सहनी पड़ी। जिसका कारण ऋषि ने उन्हें श्राप दिया था
उसी प्रकार कृष्णावतार में बन्दीगृह में जन्म, गोकुल-गमन, गोचारण, कंस-वध और फिर द्वारका के लिए प्रस्थान आदि अनेक सांसारिक दु:खों को भोगना पड़ा। रामावतार के समय देवता कर्मबन्धन के कारण वानर बने थे और कृष्णावतार में भी कृष्ण की सहायता के लिए देवता यादव बने थे।
जब माता देवकी का पहला जन्म हुआ था, उस समय उनका नाम ‘पृश्नि’ तथा वसुदेव ‘सुतपा’ नामक प्रजापति थे। दोनों ने संतान प्राप्ति की अभिलाषा से सूखे पत्ते खाकर और कभी हवा पीकर देवताओं के बारह हजार वर्षों तक तप किया। इन्द्रियों का दमन करके दोनों ने वर्षा, वायु, धूप, शीत आदि काल के विभिन्न गुणों को सहन किया और प्राणायाम के द्वारा अपने मन के मल धो डाले।
उनकी परम तपस्या, श्रद्धा और प्रेममयी भक्ति से प्रसन्न होकर श्रीविष्णु उनकी अभिलाषा पूर्ण करने के लिए उनके समक्ष प्रकट हुए और उन दोनों से कहा कि ‘तुम्हारी जो इच्छा हो माँग लो।’ तब उन दोनों ने भगवान श्रीहरि जैसा पुत्र माँगा। भगवान विष्णु उन्हें तथास्तु कहकर अन्तर्धान हो गये। वर देने के बाद भगवान ने शील, स्वभाव, उदारता आदि गुणों में अपने जैसा अन्य किसी को नहीं देखा। इस तरह भगवान ने स्वयं उन दोनों के पुत्र के रूप में तीन बार अवतार लेने का निर्णय किया।
- भगवान जब प्रथम बार उन दोनों के पुत्र हुए, उस समय वे ‘पृश्निगर्भ’ के नाम से जाने गये। दूसरे जन्म में माता पृश्नि ‘अदिति’ हुईं और सुतपा ‘कश्यप’ हुए। उस समय भगवान ‘वामन’ के रूप में उनके पुत्र हुए।
- फिर द्वापर में उन दोनों का तीसरा जन्म हुआ। इस जन्म में वही अदिति ‘देवकी’ हुईं और कश्यप ‘वसुदेवजी’ हुए और अपने वचन को सच करने के लिए भगवान विष्णु ने उनके पुत्र के रूप में श्रीकृष्णावतार लिया।
पूर्वजन्म में देवकी द्वारा किये गये कर्म ही देवकी के दु:खों का कारण
दक्ष प्रजापति की दिति और अदिति नाम की दो सुन्दर कन्याओं का विवाह कश्यप मुनि के साथ हुआ। अदिति के अत्यन्त तेजस्वी पुत्र इन्द्र हुए। भगवान विष्णु ने इन्द्र का पक्ष लेकर दिति के दोनों पुत्रों हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष को मार डाला। तब दिति ने सोचा–मैं कोई ऐसा उपाय करूंगी जिससे मुझे ऐसा पुत्र प्राप्त हो, जो इन्द्र को मार डाले। भगवान की कैसी माया है, लोग अपने को और अपने आत्मीय को तो बचाना चाहते हैं, लेकिन दूसरों से द्रोह करते हैं। यह द्रोह नरक में ले जाने का रास्ता है।
तब इन्द्र जैसे ओजस्वी पुत्र के लिए दिति के मन में इच्छा जाग्रत हुई। अत: वह अपने पति कश्यपजी को प्रसन्न करने के लिए उनकी सेवा करने लगी। दिति ने अपने मन का संयम कर प्रेम, विवेक, मधुर भाषण, मुस्कान व चितवन से कश्यपजी के मन को जीत लिया। वे दिति की सेवाओं से मुग्ध होकर जड़ हो गये।
उन्होंने दिति से कहा–’अब तुम जो चाहो हम करने को तैयार हैं।’ दिति ने देखा कि ये वचनबद्ध हो गये हैं, तो उसने कश्यपजी से प्रार्थना की कि मुझे बलशाली एवं परम शक्तिसम्पन्न पुत्र देने की कृपा करें, जो इन्द्र को मार दे। यह सुनकर कश्यपजी को बहुत दु:ख हुआ क्योंकि इन्द्र अदिति के गर्भ से कश्यपजी के बेटे हैं। उन्होंने सोचा कि माया ने मुझे पकड़ लिया। संसार में लोग स्वार्थ के लिए पति-पुत्रादि का भी नाश कर देते हैं। अब क्या हो? मैंने जो वचन दिया है, न तो वह व्यर्थ होना चाहिए और न इन्द्र का अनिष्ट होना चाहिए।
इस प्रकार सोच-विचार करके कश्यप मुनि ने दिति को एक वर्ष का ‘पुंसवन व्रत’ धारण करने के लिए कहा। कश्यपजी ने कहा कि यदि तुम एक वर्ष तक व्रत का पालन करोगी तो तुम्हारे जो बेटा होगा वह इन्द्र को मारने वाला होगा लेकिन यदि व्रत में कोई त्रुटि हो जायेगी तो वह इन्द्र का मित्र हो जायेगा। कश्यप मुनि ने व्रत के लिए दिति को इन नियमों का पालन करने के लिए कहा–
इस व्रत में किसी भी प्राणी को मन, वचन या कर्म के द्वारा सताये नहीं। किसी को शाप या गाली न दे, झूठ न बोले, शरीर के नख व बाल न काटे, किसी भी अशुभ वस्तु का स्पर्श न करे, क्रोध न करे, बिना धुला वस्त्र न पहने और किसी की पहनी हुई माला न पहने। जूठा न खाय, मांसयुक्त अन्न का भोजन न करे, शूद्र का और रजस्वला स्त्री का अन्न भी न खाये, जूठे मुँह, संध्या के समय, बाल खोले हुये घर से बाहर न जाये, सुबह शाम सोना नहीं चाहिए।
इस प्रकार इन निषिद्ध कर्मों का त्याग कर सदैव पवित्र और सौभाग्य के चिह्नों से सुसज्जित रहे। प्रात: गाय, ब्राह्मण, लक्ष्मीजी और भगवान नारायण की पूजा करके ही कलेवा करे। सुहागिन स्रियों व पति की सेवा में संलग्न रहे। और यही भावना करती रहे कि पति का तेज मेरी कोख में है।
अपने पति की बात मानकर दिति उनके ओज से सुन्दर गर्भ धारणकर पुंसवन व्रत का पालन करने लगी। वह भूमि पर सोती थी और पवित्रता का सदा ध्यान रखती थी। इस प्रकार जब उसका तेजस्वी गर्भकाल पूर्ण होने को आया तो दिति के अत्यन्त दीप्तिमान अंगों को देखकर अदिति को बड़ा दु:ख हुआ। उसने अपने मन में सोचा कि यदि दिति के गर्भ से इन्द्र के समान महाबली पुत्र उत्पन्न होगा तो निश्चय ही मेरा पुत्र निस्तेज हो जायेगा।
इस प्रकार चिन्ताग्रस्त अदिति ने अपने पुत्र इन्द्र से कहा–इस समय दिति के गर्भ में तुम्हारा शत्रु पल रहा है। अत: ऐसा कोई प्रयत्न करो कि गर्भस्थ शिशु नष्ट हो जाये। दिति का वह गर्भ मेरे हृदय में लोहे की कील के समान चुभ रहा है। अत: जिस किसी भी उपाय से तुम उसे नष्ट कर दो।
‘जब शत्रु बढ़ जाता है तब राजयक्ष्मा रोग की भाँति वह नष्ट नहीं हो पाता है। इसलिए बुद्धिमान मनुष्य का कर्तव्य है कि वह ऐसे शत्रु को अंकुरित होते ही नष्ट कर डाले।’
चतुर राजनीतिज्ञ वही है जिसे शत्रु के घर की एक-एक बात का पता हो। इन्द्र कोई साधारण राजनीतिज्ञ नहीं हैं। अपनी माता की बात मानकर इन्द्र मन-ही-मन उपाय सोचकर अपनी सौतेली माता के पास गये। उस पापबुद्धि इन्द्र ने ऊपर से मधुर किन्तु भीतर से विषभरी वाणी में विनम्रतापूर्वक दिति से कहा–’हे माता ! व्रत के कारण आप अत्यन्त दुर्बल हो गयी हैं
अत: मैं आपकी सेवा करने के लिए आया हूँ।’ जिस प्रकार बहेलिया हिरन को मारने के लिए हिरन की सी सूरत बनाकर उसके पास जाता है, वैसे ही देवराज इन्द्र भी कपट-वेष धारण करके व्रतपरायणा दिति के व्रत-पालन की त्रुटि पकड़ने के लिए उसकी सेवा करने लगे।
एक दिन व्रत के नियमों का पालन करते-करते बहुत दुर्बल हो गयी दिति से इन्द्र ने कहा–माता मैं आपके चरण दबाऊँगा; क्योंकि बड़ों की सेवा से मनुष्य अक्षय गति प्राप्त कर लेता है। ऐसा कहकर इन्द्र उनके दोनों चरण पकड़कर दबाने लगे।
चरण दबने से दिति को बहुत सुख हुआ और उसे नींद आने लगी। उस दिन वह पैर धोना भूल गयी और बाल खोले ही सो गयी।
दिति को नींद के वशीभूत देखकर इन्द्र योगबल से अत्यन्त सूक्ष्म रूप बनाकर हाथ में शस्त्र लेकर बड़ी सावधानी से दिति के उदर में प्रवेश कर गये और वज्र से उस गर्भस्थ बालक के सात टुकड़े कर डाले। तब वे सातों टुकड़े सूर्य के समान तेजस्वी सात कुमारों के रूप में परिणत हो गये।
वज्र के आघात से गर्भस्थ शिशु रोने लगे। तब दानवशत्रु इन्द्र ने उससे ‘मा रुद’ ‘मत रोओ’ कहा। फिर इन्द्र ने उन सातों टुकड़ों के सात-सात टुकड़े और कर दिये। इस प्रकार उनचास (49) कुमारों के रूप में होकर वे जोर-जोर से रोने लगे। तब उन सबों ने हाथ जोड़कर इन्द्र से कहा–’देवराज ! तुम हमें क्यों मार रहे हो? हम तो तुम्हारे भाई मरुद्गण हैं।’ इन्द्र ने मन-ही-मन सोचा कि निश्चय ही यह सौतेली माँ दिति के व्रत का परिणाम है कि वज्र से मारे जाने पर भी इनका विनाश नहीं हुआ।
ये एक से अनेक हो गये, फिर भी उदर की रक्षा हो रही है। इसमें सन्देह नहीं कि ये अवध्य हैं, इसलिए ये देवता हो जायँ। जब ये रो रहे थे, उस समय मैंने इन गर्भ के बालकों को ‘मा रुद’ कह कर चुप कराया था, इसलिए ये मरुद्गण नाम से प्रसिद्ध होंगे। इन्द्र ने सौतेली माता के पुत्रों के साथ शत्रुभाव न रखकर उन्हें सोमपायी (सोमरस का पान करने वाले) देवता बना लिया।
छली इन्द्र द्वारा अपने गर्भ को विकृत किया जानकर दिति जाग गयी और दु:खी होकर क्रोध करने लगी। यह सब मेरी बहन अदिति द्वारा कराया गया है–ऐसा जानकर दिति ने कुपित होकर अदिति और इन्द्र दोनों को शाप दे दिया कि इन्द्र ने छलपूर्वक मेरा गर्भ छिन्न-भिन्न कर डाला है, उसका त्रिभुवन का राज्य शीघ्र ही नष्ट हो जाय। जिस प्रकार पापिनी अदिति ने गुप्त पाप के द्वारा मेरे गर्भ को नष्ट करवा डाला है, उसी प्रकार उसके पुत्र भी क्रमश: उत्पन्न होते ही नष्ट हो जायेंगे और वह पुत्र-शोक से अत्यन्त चिन्तित होकर कारावास में रहेगी।
तब कश्यपजी ने दिति को शांत करते हुए कहा–देवी ! तुम क्रोध मत करो। तुम्हारे ये उनचास पुत्र मरुद् देवता होंगे, जो इन्द्र के मित्र बनेंगे। तुम्हारा शाप अट्ठाईसवें द्वापरयुग में सफल होगा। वरुणदेव ने भी उसे शाप दिया है। इन दोनों शापों के संयोग से यह अदिति मनुष्य योनि में जन्म लेकर देवकी के रूप में उत्पन्न होगी और अपने किये कर्म का फल भोगेगी।
सबके शासक, धर्म के रक्षक और तीनों लोकों के स्वामी इन्द्र ने जब ऐसा निन्दित कर्म कर डाला, तब फिर कौन मनुष्य पाप नहीं कर सकता? ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त स्थावर-जंगम सभी प्राणी माया के वशीभूत रहते हैं और वह माया उनके साथ क्रीड़ा करती रहती है। यह माया सभी को मोह में डाल देती है और जगत में निरन्तर विकार उत्पन्न किया करती है।
वेदों में कहा गया है कि सत्वगुण से सभी देवता, रजोगुण से मनुष्य तथा तमोगुण से पशु-पक्षी आदि जीव उत्पन्न होते हैं। अतएव जब सत्वगुण से उत्पन्न देवताओं में भी निरन्तर आपस में वैरभाव रहता है तब पशु-पक्षियों में परस्पर जातिवैर उत्पन्न होने में क्या आश्चर्य ! देवता भी सदा असंतुष्ट रहते हुए द्वेषपरायण होकर आपस में विरोधभाव रखते हैं।
चन्द्रमा ने जान-बूझकर अपने गुरु बृहस्पति की पत्नी का बलपूर्वक हरण कर लिया। उसी प्रकार इन्द्र ने महर्षि गौतम की पत्नी के साथ अनाचार किया। जगत्पति भगवान विष्णु ने वामन रूप धारणकर छल से राजा बलि को ठग लिया। लेकिन विजय राजा बलि की ही हुई, जिन्होंने समस्त भूमण्डल का दान कर दिया। भगवान विष्णु जो त्रिविक्रम कहलाते थे, छलने के लिए वामन (बौना) बने और उन्हें राजा बलि का द्वारपाल बनना पड़ा।
ब्रह्माजी वेदकर्ता और जगत की सृष्टि करने वाले हैं किन्तु वे भी सरस्वती को देखकर विकल हो गये। जब शिवजी की भार्या (पत्नी) सती दक्षयज्ञ में जलकर भस्म हो गयीं, तब लोगों का दु:ख दूर करने वाले होते हुए भी शिवजी शोकसंतप्त हो गये और कामाग्नि से जलते हुए यमुनानदी में कूद पड़े।
तब उनके ताप के कारण यमुनाजी का जल श्यामवर्ण का हो गया। शिवजी भृगु ऋषि के वन में जाकर दिगम्बर होकर विहार करने लगे तब शान्ति प्राप्त करने के लिए उन्होंने दानवों के द्वारा निर्मित बावली का जल पिया। अपने कर्म के प्रभाव से ही रूद्र को मुण्डों की माला धारण करनी पड़ती है। इन्द्र को बैल बनकर पृथ्वी पर सूर्यवंशी राजा ककुत्स्थ का वाहन बनना पड़ा। भगवान श्रीराम भी काम से व्याकुल होकर सीता के वियोग में जोर-जोर से रोते हुए वृक्षों से पूछते फिरते थे कि सीता कहां चली गयी?
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी,तुम देखी सीता मृगनैनी।
काम, क्रोध, अमर्ष, शोक, वैर, प्रेम, सुख, दु:ख, भय, दीनता, सरलता, पाप, पुण्य, वचन, मारण, पोषण, चलन, ताप, लोभ, दम्भ, मोह, कपट और चिन्ता आदि के भाव मनुष्य जन्म में विद्यमान रहते हैं। वे भगवान विष्णु भी शाश्वत सुख का त्याग करके इन भावों से ग्रस्त मानव का जन्म (परशुराम, राम, कृष्ण) बार-बार लेते हैं। इस प्रकार इस संसार में सभी प्राणी विधि के नियमों में बँधकर सदा सुख तथा दु:ख से युक्त रहते हैं।
जगत की सृष्टि करने में समर्थ उन भगवान श्रीकृष्ण ने माता देवकी के गर्भ में रहते हुए ही अपने माता-पिता को बंधन से मुक्त क्यों नहीं कर दिया?
यह सम्पूर्ण चराचर जगत योगमाया के अधीन रहता हैं। ब्रह्मा से लेकर स्थावर-जंगम सभी प्राणी सत्व, रज, तम इन गुणों के द्वारा उन्हीं में गुंथा हुआ है। इस प्रकार योगमाया की बड़ी महिमा है। ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र, वरुण, यम, कुबेर, अग्नि, सूर्य, चन्द्र आदि देवता, ऋषि-मुनि–ये सब बाजीगर के अधीन कठपुतली की भांति सदा योगमाया के अधीन रहते हैं। भगवान के सभी अवतार रस्सी से बंधे हुए के समान भगवती से ही नियन्त्रित रहते हैं।
भगवान विष्णु भी कभी वैकुण्ठ में और कभी क्षीरसागर में आनन्द लेते हैं, कभी अत्यधिक बलशाली दानवों के साथ युद्ध करते हैं, कभी योगनिद्रा के वशीभूत होकर शयन करते हैं, कभी मल-मूत्र तथा स्नायु से भरे गर्भ में वास से होने वाले दु:ख भोगने को विवश हो जाते हैं। इस प्रकार सभी देवता कालपाश में आबद्ध रहते हैं। अत: मनुष्य हो या देवता, किए गये शुभ या अशुभ कर्मों का फल तो अवश्य ही भोगना पड़ता है।
इसीलिए जगत की सृष्टि करने में समर्थ उन भगवान श्रीकृष्ण ने माता देवकी के गर्भ में रहते हुए अपने माता-पिता को बंधन से मुक्त नहीं किया। कर्मफल भोगने के बाद ही वसुदेव व देवकी को श्रीकृष्ण ने कंस का वधकर कारागार से मुक्त किया और उनका कष्ट दूर किया।
देवकी के छ: पुत्रों के पूर्वजन्म की कथा – श्रीमद् भागवत पुराण
देवकी के वे छ: पुत्र कौन थे? स्वायम्भुव मन्वन्तर में मरीचि और उनकी पत्नी ऊर्णा के छ: अत्यन्त बलशाली व धर्मपरायण पुत्र थे। एक बार ब्रह्माजी को अपनी पुत्री सरस्वती के साथ विहार करते देखकर ये हंस पड़े। ब्रह्माजी ने इन्हें शाप दे दिया कि तुम लोगों का पतन हो जाये और तुम दैत्ययोनि में जन्म लो। वे छहों पुत्र कालनेमि के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए। अगले जन्म में वे हिरण्यकशिपु के पुत्र हुए। इन्हें अपने पूर्वजन्मों का ज्ञान था। अत: पूर्व शाप से भयभीत होकर ये तप करने लगे।
इससे ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर इन्हें वर दे दिया कि देवता, दानव, नाग, गंधर्व, सिद्ध आदि कोई तुम्हारा वध न कर सके। हिरण्यकशिपु चूंकि देवताओं का विरोधी था, इससे वह अपने पुत्रों से कुपित हो गया कि तुमने अपने पिता की उपेक्षा की। अत: उसने अपने पुत्रों को शाप दे दिया कि मैं तुम लोगों का परित्याग करता हूँ। तुमलोग पाताललोक चले जाओ और इस पृथ्वी पर तुम लोग ‘षड्गर्भ’ नाम से विख्यात होओगे।
तुम लोग बहुत दिनों तक निद्रा के वशीभूत रहोगे। तुम लोग क्रम से प्रतिवर्ष देवकी के गर्भ से उत्पन्न होते रहोगे और पूर्वजन्म का तुम्हारा पिता कालनेमि जो अब कंस होगा, तुम लोगों को जन्म लेते ही मार डालेगा। इस प्रकार हिरण्यकशिपु के शाप से वे क्रम से एक-एक करके देवकी के गर्भ में आते गये और कंस पूर्व शाप से प्रेरित होकर उन देवकीपुत्रों का वध करता गया।
इसके बाद शेषनाग के अंशावतार बलभद्रजी देवकी के सातवें गर्भ में आये। योगमाया ने अपने योगबल से उस गर्भ को खींचकर गोकुल में नंदबाबा के घर रह रहीं वसुदेवजी की पत्नी रोहिणी के गर्भ में स्थापित कर दिया। फिर देवताओं का कार्य सिद्ध करने तथा पृथ्वी का भार उतारने के लिए जगत्पति भगवान विष्णु देवकी के आठवे गर्भ में विराजमान हो गये।
वह कन्या कौन थी, जिसे कंस ने पत्थर पर पटक दिया था और वह हाथ से छूटकर आकाश में चली गयी और पुन: अष्टभुजा के रूप में प्रकट हुई?
देवताओं का कार्य सिद्ध करने के उद्देश्य से भगवती योगमाया ने अपनी इच्छा से यशोदा के गर्भ में प्रवेश किया। भाद्रप्रदमास के कृष्णपक्ष में रोहिणी नक्षत्रयुक्त अष्टमी तिथि की अर्धरात्रि की शुभबेला में देवकीजी ने परम सुन्दर अद्भुत बालक को जन्म दिया। उसी समय योगमाया के अंश से दिव्यरूपमयी त्रिगुणात्मका भगवती ने यशोदा के गर्भ से अवतार लिया।
श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण के अनुसार जब वसुदेवजी श्रीकृष्ण को लेकर नंदबाबा के घर पहुँचे तब स्वयं भगवती ने सैरन्ध्री (परिचारिका) का रूप धारणकर उस अलौकिक बालिका को अपने करकमलों से वसुदेवजी को दे दिया। वसुदेवजी भी अपने पुत्र श्रीकृष्ण को देवीरूपा सैरन्ध्री के करकमल में रखकर योगमायास्वरूप उस बालिका को लेकर कारागार में लौट आए।
कारागार में पहुँचकर उन्होंने देवकी की शय्या पर बालिका को लिटा दिया। इतने में कन्या ने उच्च स्वर में रोना शुरु कर दिया। रोने की आवाज सुनते ही कंस तुरन्त वहां आ पहुंचा। वसुदेवजी ने रोते हुए उस कन्या को कंस के हाथों में रख दिया। कन्या को देखकर कंस ने सोचा–आकाशवाणी तथा नारदजी का वचन–दोनों ही गलत सिद्ध हुए। ऐसा सोचकर उस निर्मम कंस ने बालिका के दोनों पैर पकड़कर पत्थर पर पटका।
किन्तु वह कन्या कंस के हाथ से छूटकर आकाश में चली गयी। वहां दिव्य रूप धारणकर उस कन्या ने मधुर स्वर में कहा–’अरे पापी ! मुझे मारने से तुम्हारा क्या लाभ होगा, तेरा महाबलशाली शत्रु तो जन्म ले चुका है।’ ऐसा कहकर वह कल्याणकारिणी भगवतीस्वरूपा कन्या आकाश में चली गयी।
कर्मों की गति बड़ी गहन होती है।और मनुष्य हो या भगवान सबको अपने द्वारा किये गये शुभ अथवा अशुभ कर्मों का फल निश्चित रूप से भोगना ही पड़ता है।
अंतिम बात :
दोस्तों कमेंट के माध्यम से यह बताएं कि “श्रीमद् भागवत पुराण कथा” वाला यह आर्टिकल आपको कैसा लगा | हमने पूरी कोशिष की हे आपको सही जानकारी मिल सके| आप सभी से निवेदन हे की अगर आपको हमारी पोस्ट के माध्यम से सही जानकारी मिले तो अपने जीवन में आवशयक बदलाव जरूर करे फिर भी अगर कुछ क्षति दिखे तो हमारे लिए छोड़ दे और हमे कमेंट करके जरूर बताइए ताकि हम आवश्यक बदलाव कर सके |
हमे उम्मीद हे की आपको Shrimad Bhagwat Mahapuran वाला यह आर्टिक्ल पसंद आया होगा | आपका एक शेयर हमें आपके लिए नए आर्टिकल लाने के लिए प्रेरित करता है | ऐसी ही कहानी के बारेमे जानने के लिए हमारे साथ जुड़े रहे धन्यवाद ! 🙏