प्रारब्ध क्या हे कैसे बनती हे और उसे कौन बनाता हे ? | निष्काम कर्म योग किसे कहते हे? श्रीमद भगवद गीता अनुसार कर्म और कर्मयोगी की परिभाषा क्या हे? ये जानना चाहते हो तो इस लेख को पूरा अंत तक जरुर पढ़ें. क्योंकि आज के इस लेख में हम श्रीमद भगवद गीता अनुसार आपको कर्म के तीन प्रकार के बारे में सम्पूर्ण जानकारी देने वाले हैं
आज हम जो भी फल भोग रहे हैं वह हमारे पिछले जन्मों के कर्म के कारण है। वह हमारा प्रारब्ध कहलाता है। प्रत्येक कर्म का कुछ न कुछ फल होता है। वह फल कर्ता को भोगना ही पड़ता है।
कहानी : | प्रारब्ध क्या हे |
शैली : | आध्यात्मिक कहानी |
सूत्र : | पुराण |
मूल भाषा : | हिंदी |
भगवद गीता, वेद और उपनिषद तीनों ही कर्म को कर्तव्य मानते हुए इसके महत्व के बारमे बताते हैं और यही पुरुषार्थ है। पहले ये समज लेते हे प्रारब्ध कैसे बनता हे अर्थात् हम जैसा कर्म करेंगे वैसे ही हमारे प्रारब्ध निर्मित होते है । आपने दूध ,दही देखी भी होगी और खाई भी होगी एक प्रक्रिया के अनुसार जैसे दूध से दही बनती है ठीक वैसे ही कर्म से भाग्य बनता है ।
Table of Contents
कर्म के प्रकार – Types of Karma | प्रारब्ध क्या हे
कर्म तीन प्रकार के होते हैं जैसे की :
- संचित कर्म
- प्रारब्ध कर्म और
- क्रियमाण कर्म
संचित कर्म वह हे जिनका फल इस जीवन में नहीं मिलता वे जन्म जन्मांतर तक संचित होते जाते हैं।
प्रारब्ध‘ का अर्थ ही है पूर्व जन्म अथवा पूर्वकाल में किए हुए अच्छे और बुरे कर्म जिसका वर्तमान में फल भोगा जा रहा हो। अच्छे कर्मोँ से अच्छे संस्कार और अच्छे संस्कारोँ से अच्छे प्रारब्ध का निर्माण होता है।
क्रियमाण कर्म से ही संचित कर्म बनता हे वर्तमान में जो भी अच्चे या बुरे कर्म करते हे उन्हें क्रियमाण कर्म कहते हे
कर्म क्या है (karm kya hai)
कोई भी व्यक्ति कर्म किये बिना नहीं रह सकता | कर्म का अर्थ हे कोई भी कार्य जिसे आप अभी कर रहे हैं। जैसे खाना, पीना, चलना,देखना, सुनना, समझना, रोना, हंसना और अन्य कर्म करना आदि। किसी के बारे में अच्छा या बुरा सोचना यह भी कर्म के अंतर्गत ही आता है। इसे कर्म कहते हे
(१) संचित कर्म
संचित का अर्थ है : संपूर्ण, कुलयोग| अर्थात, मात्र इस जीवन के ही नहीं अपितु पूर्वजन्मों के सभी कर्म जो आपने उन जन्मों में किये हैं | आपने इन कर्मों को एकत्र करके अपने खाते में डाल लिया है |
उदाहरण के रूप में कोई आप का अपमान करे और आप क्रोधित हो जाएँ तो आपके संचित कर्म बढ़ जाते हैं| परन्तु,यदि कोई अपमान करे और आप क्रोध ना करें तो आप के संचित कर्म कम होते हैं |
प्रत्येक जन्म में किये गये संस्कार एवं उसके फल भाव का संचित कोष तैयार हो जाता है. यह उस जीव की व्यक्तिगत पूँजी है जो अच्छी या बुरी दोनों प्रकार की हो सकती है यही संचित कोष संचित कर्म कहा जाता है, और मनुष्य इसे हर जन्म में नये रूप में अर्जित करता रहता है.
इस तरह संचित कर्म का सम्बन्ध मानसिक कर्म से भी होता है जैसे ईर्ष्या,क्रोध,बदला लेने की भावना अथवा क्षमा,दया इत्यादि की भावना मनुष्य में संचित कर्मों के आधार पर ही पायी जती है अशुभ चिंतन में अशुभ संचित कर्म व शुभ चिन्तन में शुभ संचित कर्म बनते हैं.
जीवन में तीन चीजों का संयोग होता है
- आत्मा
- मन और
- शरीर
शरीर और आत्मा के मध्य सेतु है मन.यदि मन किसी प्रकार के संस्कार निर्मित न करे और पूर्व संस्कारों को क्षय करे टो वह मन अपना अस्तित्व ही खो देगा और मनुष्य का जन्म नहीं होगा .संचित कर्मों का प्रभाव -प्रत्येक मनुष्य अपने पूर्व जन्मों में भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में पैदा हुआ था.जिससे उसके कर्म भी भिन्न-भिन्न प्रकार के रहे,उसकी प्रतिभा का विकास भी भिन्न-भिन्न प्रकार से हुआ होगा.
इन्ही पिछले संस्कारों के कारण कोई व्यक्ति कर्मठ या आलसी स्वाभाव का होता है,यह संचित कोष ही पाप और पुण्य का ढेर होता है. इसी ढेर के अनुसार वासनायें,इच्छायें,कामनायें,ईर्ष्या,द्वेष,क्रोध,क्षमा इत्यादि होते हैं.ये संस्कार बुद्धि को उसी दिशा की ओर प्रेरित करते हैं जैसा की उसमे संग्रहीत हों.
(२) प्रारब्ध क्या हे
‘प्रारब्ध’, ‘संचित’ का एक भाग, इस जीवन के कर्म हैं| आप सभी संचित कर्म इस जन्म में नहीं भोग सकते क्यूंकि यह बहुत से पूर्वजन्मों का बहुत बड़ा संग्रह है| इसलिए इस जीवन में आप जो कर्म करते हैं, प्रारब्ध, वो आप के संचित कर्म में से घटा दिया जायेगा| इस प्रकार इस जीवन में आप केवल प्रारब्ध भोगेंगे,जो आप के कुल कर्मों का एक भाग है|
वे मानसिक कर्म होते हैं, जो स्वेच्छापूर्वक जानबूझकर, तीव्र भावनाओं से प्रेरित होकर किए जाते हैं। प्रारब्ध -कर्मों के फल अंश का कुछ हिस्सा इस जन्म के भोग के लिये निश्चित होता है या इस जन्म में जिन संचित कर्मों का भोग आरम्भ हो चुका है वही प्रारब्ध है.इसी प्रारब्ध के अनुसार मनुष्य को अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों में जन्म लेना पड़ता है.
इसका भोग तीन प्रकार से होता है
- अनिच्छा से : वे बातें जिन पर मनुष्य का वश नहीं और न ही विचार किया हो जैसे भूकंप आदि.
- परेच्छा से : दूसरों के द्वारा दिया गया सुख दुःख
- स्वेच्छा से : इस समय मनुष्य की बुद्धि ही वैसी हो जाया करती है, जिससे वह प्रारब्ध के वशीभूत अपने भोग के लिये स्वयं कारक बन जाता है ;किसी विशेष समय में विशेष प्रकार की बुद्धि हो जाया करती है तथा उसके अनुसार निर्णय लेना प्रारब्ध है.प्रारब्ध में न हो तो मुँह तक पोहकचर भी निवाला छीन जाता हे
प्रारब्ध (Prarabdha) संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ होता है ‘प्राप्त’ या ‘प्राप्ति हुआ हुआ’। हिंदू फिलॉसफी और ज्योतिष शास्त्र में, प्रारब्ध कर्म (Prarabdha Karma) उस कर्म का नाम है जिसे जीवात्मा पहले से ही इस जन्म में अनुभव कर रही होती है।
प्रारब्ध कर्म जीवात्मा के पूर्व जन्मों में अचरित किए गए कर्मों का परिणाम होता है जो इस जीवात्मा के इस जन्म में अनुभव करने के लिए निश्चित किया गया है। यह प्रारब्ध कर्म जीवात्मा के जन्म, मृत्यु, अनुभव, और जीवन की स्थितियों को निर्धारित करता है। इसे कर्मफल भी कहा जाता है।
प्रारब्ध कर्म जीवात्मा की पूर्व कर्मों की एक छोटी सी भाग होती है जो उसे इस जन्म में अनुभव करने के लिए संकल्पित होती है। जब यह प्रारब्ध कर्म समाप्त हो जाता है, तब जीवात्मा के नए कर्म प्रारंभ होते हैं।
(३) क्रियमाण
तीसरा कर्म क्रियमाण है,कर्म शारीरिक हैं, जिनका फल प्रायः साथ के साथ ही मिलता रहता है। नशा पिया कि उन्माद आया।विष खाया कि मृत्यु हुई। शरीर जड़ तत्त्वों का बना हुआ है। भौतिक तत्त्व स्थूलता प्रधान होते हैं। उसमें तुरंत ही बदलामिलता है। अग्नि के छूते ही हाथ जल जाता है। नियम के विरुद्ध आहार–विहारकरने पर रोगों की पीड़ा का, निर्बलता का अविलम्ब आक्रमण हो जाता है और उसकी शुद्धि भी शीघ्र हो जाती है।
क्रियमाण : तात्कालिक किये जाने वाले कर्म.जो कर्म हम दिन रात इस जीवन में कर रहे हे वो कर्म | क्रियामान कर्म से ही संचित कर्मों का निर्माण होता है| तो यह जोड़ घटाना कैसे चलता है?
जो भी कर्म हम पूर्ण चैतन्यता से नहीं करते वो क्रिया नहीं प्रतिक्रिया है | जिसके प्रति आप चैतन्य नहीं हैं वो क्रिया नहीं हो सकती | और जब हम बिना चैतन्यता के कर्म करते हैं,जैसा प्रायः दैनिक जीवन में होता है तो हमारे संचित कर्म बढ़ जाते हैं |
यदि कोई आप का अपमान करे और आप क्रोधित हो जाएँ तो आपके संचित कर्म बढ़ जाते हैं| परन्तु,यदि कोई अपमान करे और आप क्रोध ना करें तो आप के संचित कर्म कम होते हैं|
इसे मैं एक योगी के उदाहरण से रूप में समझते हे | योगी एक वृक्ष के नीचे ध्यानमग्न थे कि तभी एक व्यक्ति वह आया और उनका बहुत अपमान किया | वो शांत रहे | कोई प्रतिक्रिया नहीं हुयी (ना ब्राह्य रूप से ना आंतरिक रूप से) उन्हें क्रोध भी नहीं आया|
बाद में उनके शिष्यों ने,जो सब कुछ देख सुन रहे थे,पूछा कि आप को क्रोध नहीं आया? तो उन्होंने उत्तर दिया कि संभवतः पूर्वजन्म में मैंने उसका अपमान किया था, वास्तव में मैं प्रतीक्षा में था कि वो आकर मेरा अपमान करे | अब मेरा हिसाब बराबर हो गया | अगर मैं क्रोध करता तो फिर कर्म संचित हो जाते |
कर्म का सिद्धांत – प्रारब्ध क्या हे
जैसा कर्म करोगे वैसा ही फल मिलता हे इसे ऐसे समझते हे आपने जैसा बीज बोया है आपको वैसा ही फल भोगने को मिलेगा। अर्थात आप आप दूसरों के साथ जैसा व्यवहार करेंगे वैसा ही व्यवहार आपके पास लौटकर आता है।
भगवद्गीता के अनुसार यदि आप दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं तो इसका फल आपको इस जन्म है या तो अगले जन्म में अच्छा ही मिलेगा यह तय हे| अगर आप दूसरों के साथ बुरा व्यवहार करते हैं तो इसका फल आपको इस जन्म है या तो अगले जन्म में बुरा ही मिलेगा यह तय हे इससे आप छूट नहीं सकते
जब हमे लगता हे की हमने तो दुसरो के साथ बुरा किया नहीं हे तो हमारे साथ बुरा क्यों हो रहा हे हमारे जीवन में इतनी मुसीबत या कष्ट क्यों आ रहे हैं?
इसका जवाब हे हमने पिछले जन्म में बुरे कर्म किये होंगे जिसका फल हमे इस जन्म में मिल रहा हे| यही प्रकृति का नियम हे
इसलिए जीवन में हर समय उचित कर्म करना अनिवार्य हे
कर्म फल से मुक्त कैसे हो ?
कर्म फल से कोई भी मुक्त नहीं हो सकता | हमने जन्म लिया हे तो कोई न कोई कर्म हमे करना ही पड़ता हे कोई भी इससे छूट नहीं सकता| किन्तु भगवत गीता के अनुसार निष्काम भाव से फल की इच्छा किये बिना कर्म को सिर्फ अपना कर्तव्य समझकर करना ही कर्म बंधन से मुक्ति पाने का एकमात्र उपाय है।
कर्मण्ये वाधिका रस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्म फल हेतुरभुह, माँ ते संगोत्स्व कर्मण्ये।।
अर्थात तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कदापि नहीं। इसलिए तू फल की इच्छा से कर्म मत कर और न ही ऐसा सोच की फल की आशा के बिना कर्म क्यों करूं| अर्थात् तुझे किसी भी अवस्थामें कर्मफलकी इच्छा नहीं होनी चाहिये।
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि निष्काम कर्म ही कर्मयोग की श्रेणी में आता है | जो व्यक्ति कर्म को अपना कर्तव्य या धर्म समझ कर कर रहे हैं वे तनाव-मुक्त रहते हैं | ऐसे व्यक्ति फल न मिलने पंर भी निराश नहीं होते और अपना कर्तव्य कर्म करते रहते हे
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ।।
अर्थात सुख-दु:ख, लाभ-हानि और जय-पराजय को समान मानकर कर युद्ध के लिये तैयार हो जाओ; इस प्रकार तुमको पाप के भागी नहीं बनोगे
कर्तव्य के पालन हेतु युद्ध करो, युद्ध से मिलने वाले सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय को समान समझो। यदि तुम इस प्रकार अपने कर्तव्य का निर्वहन करोगे तब तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा।
अंतिम बात :
दोस्तों कमेंट के माध्यम से यह बताएं कि “प्रारब्ध क्या हे” वाला यह आर्टिकल आपको कैसा लगा | हमने पूरी कोशिष की हे आपको सही जानकारी मिल सके| आप सभी से निवेदन हे की अगर आपको हमारी पोस्ट के माध्यम से सही जानकारी मिले तो अपने जीवन में आवशयक बदलाव जरूर करे फिर भी अगर कुछ क्षति दिखे तो हमारे लिए छोड़ दे और हमे कमेंट करके जरूर बताइए ताकि हम आवश्यक बदलाव कर सके |
हमे उम्मीद हे की आपको कर्म के प्रकार वाला यह आर्टिक्ल पसंद आया होगा | आपका एक शेयर हमें आपके लिए नए आर्टिकल लाने के लिए प्रेरित करता है | ऐसी ही कहानी के बारेमे जानने के लिए हमारे साथ जुड़े रहे धन्यवाद ! 🙏